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कविता

मन की पृथ्वी

जितेंद्र श्रीवास्तव


एक दोस्त था
या कहूँ एक था दोस्त
या किसी और तरह से कहूँ
या सीधे-सीधे कहूँ
एक था जो घंटों बातें करता था
फोन कट जाए तो दुबारा-तिबारा मिलाता था
छल छल छलकता था उसका प्रेम
उसके शब्दों में

वह बोलता तो लगता
जैसे झरने गिर रहे हों प्रीति के अटूट
जैसे नदी बह रही हों कलकल कलकल अनवरत अविराम
वह देखता इस तरह निर्निमेष
लगता इतना निष्कलुष
कि शक की कोई गुंजाईश ही नहीं बचती

वह लगता इतना अच्छा
कि उसके मन के अलावा
कहीं और मन खोलने का मन ही नहीं करता था

धीरे-धीरे मैंने बताए अपने बहुत से सच
धीरे धीरे उसने खडा किया झूठ का पहाड़
और एक दिन भहराकर गिरा भरोसे का घर तो काँप गई मन की पृथ्वी
जैसे कभी-कभी भ्राते हैं पहाड़ तो काँप जाते है धरती

रात अनायास आ गई
संबंधों के बीच
मैंने अकबकाकर देखा
चारों ओर
अँधेरा ही अँधेरा था

जो जानना था पहले ही पल
उसे तब जाना
जब कुछ बचा ही न था

अब दूर-दूर तक
खँडहर थे अनुभूतियों के

साथियो, यह बाजीगरी भी कमाल की चीज है
झूठ का चेहरा सच से सुंदर बना देती हैऔर प्यार और भरोसे को एक आदिम मूर्खता
या फूहड़ मजाक में बदल देती है


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